रविवार, 29 अप्रैल 2007

चाय की प्याली

शनिवार का दिन, कार्यालय में लगभग अवकाश का मौहाल; हमारे अधिकारी, आवश्यकतानुसार कभी आ गये , कभी नहींI पिछले शनिवार को आ गये; दिन में ग्यारह बजे साहब का चाय पीने का मूड हो गया I कार्यालय में कोई चपरासी नहीं, किसी की शादी, कोई छुट्टी पर, कोई अनुपस्थितI बहरेहाल चाय बनाने का सामान उपलब्ध था, मैनें चाय बनाई, सबने चाय पीI सामान्य सी बात थीI
मैं कडी धूप में घर आया, शायद धूप लग गयी थी, मैं कुछ देर के लिये सो गया; मेरी पत्नी भी सो रही थी, वो भी थकी थीI बिस्तर पर पडे पडे कुछ मेरे कार्यालय व कुछ उसके स्कूल की बातें; मैने आज अपने कार्यालय में चाय बनाई, यह बात उसको बताईI कुछ देर के बाद मेरी पत्नी ने कहा कि जरा चाय बना के पिला दो I { सामान्यत: शाम की चाय मेरी पत्नी ही बनाती है, कभी नहीं बनाई तो मैनें बना दी} मैनें मना कर दिया, शायद थकावट के कारणI मेरी पत्नी कुछ सोच कर कहती है कि काश मैं तुम्हारी सी.पी.टी.एम (मेरे अधिकारी) होती तो तुम अभी जरूर चाय बना कर पिलातेI मै अपनी समस्त वर्जनाओं के साथ निरुत्तर ही रहा I

गुरुवार, 26 अप्रैल 2007

मैं और मेरी कार

मुझे कार क्यूं लेनी चाहिये? कुछ बेतुका सा प्रश्न नहीं है यह? शायद नहींI स्कूल कालेज के जमाने में तो बडे बडे ख्वाब थे कि आई ए एस/ पीसीएस/उच्चाधिकारी बन जाऊंगा तो अपने खानदान में मैं पहला व्यक्ति होऊंगा जो तथाकथित उच्च मध्यमवर्गीय/उच्चवर्गीय श्रेणी में स्थापित होऊंगा किन्तु कुछ मेरी फ़ितरतें और कुछ नियति; प्रारब्ध में थी रेलवे की स्टेशन मास्टरी; लगे झण्डी दिखानेI सोच लिया अब तो १५० पहियों की गाडी में चलूगां, चार पहियों की गाडी क्या करना हैI १५० पहियों की गाडी में चलने न चलने का क्षेपक फिर कभी, अभी तो पहले चार पहिये से निपट लूंI शादी हो गई, पुरानी प्रिया स्कूटर पर अपनी नई प्रिया को बिठा कर पूरा इलाहाबादी वर्ल्ड टूर कई बार कर लियाI एक पुत्र हो गया तो पुरानी प्रिया में आगे एक छोटी सीट लगवा ली, काम चल गयाI घूमते कालचक्र के साथ एक पुत्री भी हो गयी जो मेरे और नई प्रिया (हांलाकि अब वो भी पुरानी हो गयी थी, जमाने के हिसाब से) के बीच में समायोजित हो गयी लेकिन थोडी और जगह चाहिये थी कि उसी समय नई नई कैलिबर का अवतार हुआ और मुझे उससे इश्क हो गया, मैने अपने इश्क को परवान चढा दियाI मेरे इस इश्क का हनीमून जबलपुर में हुआ जो कि चार साल से कुछ ज्यादा समय तक चला, इसके बाद मैं अपने वतन (इलाहाबाद) लौट आया I अब बच्चे बडे हो गये हैं और संवेदनशील भीI लेकिन कैलिबर की साइज वही है और संवेदनशीलता उसकी भी बढ गई हैI कई बार धूप/बरसात/ठंड की वजह से सपरिवार कैलिबर की सवारी न करने का निर्णय लेने की त्रासदी झेलनी पडीI ऐसा नहीं है कि प्रियाकाल में ऐसी त्रासदी नहीं हुई पर अब इसके एहसास का परिमाण कुछ अधिक बोझिल होरहा थाI
चलो अब कार ले लेंगें, इरादा मजबूती से पैर जमाने लगाI कार भी पसंद कर ली गई; ह्युंडई की सैंट्रो, कार की कम्पनियों के फोन आने लगेI अब इसके लिये आवश्यकता थी धन की, वो तो है ही नही, न कभी थाI इस समस्या का हल विभिन्न वित्तीय संस्थाओं ने अपनी उधार नीति से प्रस्तुत कियाI 85% तक वित्तीय सहयोग, उधार चुकाते रहिये 5-7 वर्षों में ; बात समझ में आ रही थीI मूड पक्का हो गया, इसी बीच मानसिक हलचलों से युक्त एक परम श्रध्देय व चरण वन्दनीय व्यक्तित्व से इस कार प्रसंग पर चर्चा हो गई और फिर.... (कृपया फोटो देखें)
मैं कार लूं यह विचार उनके अनुसार उत्सावर्धक है किन्तु उधार की नीति, नहीं कुनीति के अंतर्गत महापापI
किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु 1. एक से भले दो:- एक तो मैं दूसरा मेरा महाजन (Bank). मुझे पता है कि मैं अभी अपने बूते कार नहीं क्रय कर सकता तो दूसरा मेरी सहायता करने को तत्पर हैI कोई भी निरर्थक मेरी सहायता क्यूं करेगा? निश्चित है कि वो इसकी कीमत मांगेगाI 2. कल का उपभोग आज :- मैं अपनी सामर्थ्य बढाऊं फिर कार खरीदूं; हो सकता है कि मुझे दो से चार वर्ष और लगेंI अर्थात मुझे प्रतीक्षा करनी होगीI यह भी हो सकता है कि उस प्रतीक्षाकाल में मेरी प्राथमिकता परिवर्तित हो जाये और मेरा प्रतीक्षाकाल अधिक और अधिक होता जाये और यह अंतहीन भी हो सकता है यह भी हो सकता है कि मैं ही ना रहूं फिर तो आ चुकी मेरी कारI इसलिये मैं आनेवाले कल को आज लाकर अपनी ईच्छापूर्ति क्यों ना कर लूं? इसके लिये कुछ अतिरिक्त कीमत तो देनी ही होगी, आखिर मैं भविष्य को वर्तमान बना रहा हूंI लीक से हट कर कुछ करने के लिये अतिरिक्त खिंचाव (extra stress), फिर चाहे वो शारीरिक, मानसिक या आर्थिक हो, लेना तो पडेगा हीI

शनिवार, 7 अप्रैल 2007

जै राम जी की! मैं इसी पृथ्वी पर किसी कोने में रहने वाला एक बंदा हूं, एक पत्नी और दो बच्चों के साथ अपनी जीवन नैया की इस थोपी हुई यात्रा को निरन्तर आकर्षक बनाने का प्रयास कर रहा हूं!